क्यों है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गुरु 'भगवा ध्वज' ?

Vishwa Bhaarath
0
क्यों है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गुरु 'भगवा ध्वज' ? - Why Rashtriya Swayamsevak Sangh guru is 'Saffron Flag'?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसके पीछे मूल भाव यह था कि व्यक्ति पतित हो सकता है पर विचार और पावन प्रतीक नहीं। विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन गुरु रूप में इसी भगवा ध्वज को नमन करता है

पर्वों, त्योहारों और संस्कारों की भारतभूमि पर गुरु का परम महत्व माना गया है। गुरु शिष्य की ऊर्जा को पहचानकर उसके संपूर्ण सामर्थ्य को विकसित करने में सहायक होता है। गुरु नश्वर सत्ता का नहीं, चैतन्य विचारों का प्रतिरूप होता है। रा. स्व. संघ के आरम्भ से ही भगवा ध्वज गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है।

भारतभूमि के कण-कण में चैतन्य स्पंदन विद्यमान है। पर्वों, त्योहारों और संस्कारों की जीवंत परम्पराएं इसको प्राणवान बनाती हैं। तत्वदर्शी ऋषियों की इस जागृत धरा का ऐसा ही एक पावन पर्व है गुरु पूर्णिमा। हमारे यहां ‘अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं...तस्मै श्री गुरुवे नम:’ कह कर गुरु की अभ्यर्थना एक चिरंतन सत्ता के रूप में की गई है। भारत की सनातन संस्कृति में गुरु को परम भाव माना गया है जो कभी नष्ट नहीं हो सकता, इसीलिए गुरु को व्यक्ति नहीं अपितु विचार की संज्ञा दी गई है। इसी दिव्य भाव ने हमारे राष्ट्र को जगद्गुरु की पदवी से विभूषित किया। गुरु को नमन का ही पावन पर्व है गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा)।

ज्ञान दीप है सद्गुुरु
गुरु’ स्वयं में पूर्ण है और जो खुद पूरा है वही तो दूसरों को पूर्णता का बोध करवा सकता है। हमारे अंतस में संस्कारों का परिशोधन, गुणों का संवर्द्धन एवं दुर्भावनाओं का विनाश करके गुरु हमारे जीवन को सन्मार्ग पर ले जाता है। गुरु कौन व कैसा हो, इस विषय में श्रुति बहुत सुंदर व्याख्या करती है-‘विशारदं ब्रह्मनिष्ठं श्रोत्रियं...’ अर्थात् जो ज्ञानी हो, शब्द ब्रह्म का ज्ञाता हो, आचरण से श्रेष्ठ ब्राह्मण जैसा और ब्रह्म में निवास करने वाला हो तथा अपनी शरण में आये शिष्य को स्वयं के समान सामर्थ्यवान बनाने की क्षमता रखता हो। वही गुरु है। जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य की ‘श्तश्लोकी’ के पहले श्लोक में सद्गुुरु की परिभाषा है-तीनों लोकों में सद्गुरु की उपमा किसी से नहीं दी जा सकती।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार भगवान बुद्ध ने सारनाथ में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अपने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिया था। इसीलिए बौद्ध धर्म के अनुयायी भी पूरी श्रद्धा से गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाते हैं। सिख इतिहास में गुरुओं का विशेष स्थान रहा है। जरूरी नहीं कि किसी देहधारी को ही गुरु माना जाये। मन में सच्ची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरु को किसी भी रूप में पाया जा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा में गुरु को ढूंढा और महान धनुर्धर बना। दत्तात्रेय महाराज ने 24 गुरु बनाये थे।

भगवा ध्वज है भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक
चाणक्य जैसे गुरु ने चन्द्रगुप्त को चक्रवर्ती सम्राट बनाया और समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के भीतर बर्बर मुस्लिम आक्रमणकारियों से राष्ट्र रक्षा की सामर्थ्य विकसित की। मगर इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि बीती सदी में हमारी गौरवशाली गुरु-शिष्य परंपरा में कई विसंगतियां आ गयीं। इस परिवर्तन को लक्षित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसके पीछे मूल भाव यह था कि व्यक्ति पतित हो सकता है पर विचार और पावन प्रतीक नहीं। विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन गुरु रूप में इसी भगवा ध्वज को नमन करता है। गुरु पूर्णिमा के दिन संघ के स्वयंसेवक गुरु दक्षिणा के रूप में इसी भगवा ध्वज के समक्ष राष्ट्र के प्रति अपना समर्पण व श्रद्धा निवेदित करते हैं। उल्लेखनीय है कि इस भगवा ध्वज को गुरु की मान्यता यूं ही नहीं मिली है। यह ध्वज तपोमय व ज्ञाननिष्ठ भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक सशक्त व पुरातन प्रतीक है। उगते हुये सूर्य के समान इसका भगवा रंग भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक ऊर्जा, पराक्रमी परंपरा एवं विजय भाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। संघ ने उसी परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु के प्रतीक रूप में स्वीकार किया है जो कि हजारों वर्षों से राष्ट्र और धर्म का ध्वज था।

गुरु शब्द का महत्व इसके अक्षरों में ही निहित है। देववाणी संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ का अर्थ हटाने वाला। यानी जो अज्ञान के अंधकार से मुक्ति दिलाये वह ही गुरु है। माता-पिता हमारे जीवन के प्रथम गुरु होते हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा प्राप्ति के लिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी। आज उनके स्थान पर स्कूल-कॉलेज हैं।

अनुपम धरोहर: गुरु-शिष्य परम्परा
गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति की ऐसी अनुपम धरोहर है जिसकी मिसाल दुनियाभर में दी जाती है। यही परम्परा आदिकाल से ज्ञान संपदा का संरक्षण कर उसे श्रुति के रूप में क्रमबद्ध संरक्षित करती आयी है। गुरु-शिष्य के महान संबंधों एवं समर्पण भाव से अपने अहंकार को गलाकर गुरु कृपा प्राप्त करने के तमाम विवरण हमारे शास्त्रों में हैं। कठोपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के रूप में व्याख्यायित यम-नचिकेता का पारस्परिक संवाद गुरु-शिष्य परम्परा का विलक्षण उदाहरण है। जरा विचार कीजिए! पिता के अन्याय का विरोध करने पर एक पांच साल के बालक नचिकेता को क्रोध में भरे अहंकारी पिता द्वारा घर से निकाल दिया जाता है। पर वह झुकता नहीं और अपने प्रश्नों की जिज्ञासा शांत करने के लिए मृत्यु के देवता यमराज के दरवाजे पर जा खड़ा होता है। तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहता है। अंतत: यमराज उसकी जिज्ञासा, पात्रता और दृढ़ता को परख कर गुरु रूप में उसे जीवन तत्व का मूल ज्ञान देते हैं। यम-नचिकेता का यह वार्तालाप भारतीय ज्ञान सम्पदा की अमूल्य निधि है। हमारे समक्ष ऐसे अनेक पौराणिक व ऐतिहासिक उदाहरण उपलब्ध हैं जो इस गौरवशाली परम्परा का गुणगान करते हैं। गुरुकृपा शिष्य का परम सौभाग्य है। गुरुकृपा से कायाकल्प के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।

कुछ विलक्षण अनुभूतियां
स्वामी विवेकानंद तो बचपन से ही मेधावी व ईशतत्व के जिज्ञासु थे। गुरु रामकृष्ण परमहंस के आशीर्वाद से उन्हें दिव्यतत्व से आत्म साक्षात्कार हुआ था। श्री रामकृष्ण के शिष्यों में एक लाटू महाराज भी थे। निरे अपढ़, पर हृदय में भक्ति थी। एक बार उन्होंने परमहंस देव से कहा- ठाकुर! मेरा क्या होगा? ठाकुर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा—तेरे लिए मैं हूं न। तब से लाटू महाराज का नियम बन गया—अपने गुरुदेव रामकृष्ण का नाम स्मरण। ठाकुर की आज्ञा उनके लिए सर्वस्व थी। इसी से उनके जीवन में ऐसे आश्चर्यजनक आध्यात्मिक परिवर्तन हुए कि स्वामी विवेकानन्द ने उनका नाम ही अद्भुतानंद रख दिया। विराट गायत्री परिवार के संस्थापक-संरक्षक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का जीवन भी अपने हिमालयवासी गुरु को समर्पण की अनूठी गाथा है। 15 वर्ष की आयु में पूजन कक्ष में एक प्रकाश पुंज के रूप में अपनी मार्गदर्शक सत्ता से प्रथम साक्षात्कार और उसी प्रथम मुलाकात में पूर्ण समर्पण और उनके निर्देशानुसार समूचे जीवन के लिए संकल्पबद्ध हो जाना कोई मामूली बात नहीं है। करोड़ों की सदस्य संख्या वाला गायत्री मिशन आज जिस तरह समाज में सुसंस्कारिता की अलख जगा रहा है, उसके पीछे उनके परम गुरु की दिव्य चेतना ही तो है। शिष्य के अन्तर्मन में ज्यों-ज्यों गुरु भक्ति प्रगाढ़ होती है, त्यों-त्यों उसका अन्त:करण ज्ञान के प्रकाश से भरता जाता है। महान गुरु योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी के शिष्य स्वामी प्रणवानन्द की अनुभूति भी ऐसी ही है जो उन्होंने परमहंस योगानन्द जी को सुनायी थी। वे दिन में रेलवे की नौकरी करते थे और रात्रि को आठ घण्टे की अविराम ध्यान साधना। उन्होंने सद्गुुरु के चरणों में ईश दर्शन की यह तीव्र आकांक्षा निवेदित कर कहा—उस परम प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन किए बिना अब मैं जीवित नहीं रह सकता। आप इस भौतिक कलेवर में मेरे सम्मुख विद्यमान हैं पर मेरी प्रार्थना को स्वीकारें और मुझे अपने अनन्त रूप में दर्शन दें। तब गुरु ने अपना हाथ मेरे शीश पर रखकर आशीर्वाद दिया कि मेरी प्रार्थना परमपिता परमेश्वर तक पहुंच गयी है। अपरिमित आनन्द और उल्लास से भरकर उस रात्रि सद्गुुरु के चरण मेरी ध्यान चेतना का केन्द्र थे। वे चरण कब अनन्त विराट परब्रह्म बन गये, पता ही नहीं चला और उसी रात मैंने जीवन की चिरप्रतीक्षित परमसिद्धि प्राप्त कर ली। चीन के एक प्रसिद्ध सन्त थे—शिन हुआ। उन्होंने काफी दिनों तक साधना की। देश- विदेश के अनेक स्थानों का भ्रमण किया। विभिन्न शास्त्र और विद्याएं पढ़ीं; परन्तु चित्त को शान्ति न मिली। सालों-साल के विद्याभ्यास के बावजूद भटकन एवं भ्रान्ति बनी रही। शिन-हुआ को भारी बेचैनी थी। उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात बोधिधर्म से हुई। बोधिधर्म उन दिनों भारत से चीन गए हुए थे। बोधिधर्म के सान्निध्य, उनके पल भर के सम्पर्क से शिन हुआ की सारी भ्रान्ति, समूची भटकन समाप्त हो गयी। उनके मुख पर ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गयी। बात अनोखी थी। जो सालों तक अनेक शास्त्रों एवं विद्याओं को पढ़कर न हुआ, वह एक पल में हो गया। शिन-हुआ ने अपने संस्मरणों में अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘सद्गुरु बोधिधर्म से मिलना ठीक वैसा ही था जैसे प्रज्ज्वलित प्रकाश स्रोत में एक छोटे से दीपक का विलय।’’

गुरु-तत्व की अद्भुत व्याख्या
देवाधिदेव शिव कहते हैं गुरु-तत्व को किसी बौद्धिक क्षमता से नहीं वरन् सजल भाव संवेदनाओं से ही हृदयंगम किया जा सकता है। ‘गुरु ही पर:ब्रह्म है-महादेव के इस कथन में अनेक गूढ़ार्थ समाए हैं। उनके इस अपूर्व दर्शन में द्रष्टा, दृष्टि, एवं दर्शन, सभी कुछ एकाकार है। सद्गुुरु कृपा से जिसे दिव्य दृष्टि मिल जाती है, वही ब्रह्म का दर्शन करने में सक्षम हो पाता है। उच्चतम तत्त्व के प्रति जिज्ञासा भी उच्चतम चेतना में अंकुरित होती है। उत्कृष्टता एवं पवित्रता की उर्वरता में ही यह अंकुरण सम्भव हो पाता है। वही तत्वज्ञान का अधिकारी होता है। उसी में गुरु की चेतना प्रकाशित होती है। ऐसे सच्चे मुमुक्षु शिष्य के प्राणों में गुरु का तप प्रवाहित होने लगता है। ऐसे गुरुगत शिष्य के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता।

....Panchjanya

Post a Comment

0 Comments


Post a Comment (0)
Translate to your Language!

"విశ్వభారత్" జాలిక లాభాపేక్ష లేకుండా నడపబడుతున్నది. జాతీయవాదాన్ని మరింత ముందుకు తీసుకెళ్లేందుకు మీ వంతు సహాయం చేయండి.  ;

Supporting From Bharat:

 

Notice : The source URLs cited in the news/article might be only valid on the date the news/article was published. Most of them may become invalid from a day to a few months later. When a URL fails to work, you may go to the top level of the sources website and search for the news/article.

Disclaimer : The news/article published are collected from various sources and responsibility of news/article lies solely on the source itself. Vishwa Bhaarath (VB) or its website is not in anyway connected nor it is responsible for the news/article content presented here. ​Opinions expressed in this article are the authors personal opinions. Information, facts or opinions shared by the Author do not reflect the views of VB and VB is not responsible or liable for the same. The Author is responsible for accuracy, completeness, suitability and validity of any information in this article. ​

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies. Learn
Accept !
To Top